This Deaf Wrestler is first athlete to get Padmashree !
‘गूंगा पहलवान’ का दंगल से पद्मश्री तक का सफर इस साल गणतंत्र दिवस के मौके पर खेलों से जुड़ी जिन हस्तियों को सम्मानित किया गया उनमें से एक नाम पहलवान वीरेंद्र सिंह का है – उन्हें पद्म श्री का सम्मान मिला। अगर सरकार ने इतना बड़ा सम्मान दिया तो जरूर कुछ न कुछ ख़ास किया होगा। किस कामनवेल्थ, एशियाई या ओलंपिक में उन्हें कोई मैडल मिला? किसी में नहीं। तो इतना बड़ा सम्मान क्यों ? इस सवाल के जवाब में उनकी मेहनत और तारीफ छिपी है।
सबसे पहले उनके नाम की बात – वे अपने नाम वीरेंद्र सिंह से ज्यादा ‘गूंगा पहलवान’ के तौर पर मशहूर हैं। ये कोई निकनेम नहीं, सच्चाई है – वे पहलवान हैं और साथ में जन्म से सुन – बोल नहीं सकते। इसीलिए उन कामनवेल्थ, एशियाई या ओलंपिक में से किसी में भी हिस्सा नहीं ले पाए जिनमें आम तौर पर खिलाड़ी हिस्सा लेते हैं और मैडल जीतते हैं। फिजिकल कमी के कारण वे डिसक्वालीफाई कर दिए गए।
इसके बावजूद सच्चाई ये है कि वे भारत के सबसे बेहतर पहलवानों में से एक रहे – 12 सालों में सात पदक जिनमें से 4 गोल्ड ।हरियाणा के झज्जर जिले के सासरोली गाँव में जन्मे, वीरेंद्र अपनी कमी के कारण कभी स्कूल नहीं गए। परिवार के पास इतने साधन नहीं थे कि सांकेतिक भाषा में पढ़ने का इंतज़ाम करते। जब 10 साल के थे तो पिता अजय सिंह (खुद पहलवान) जो CRPF में नौकरी करते थे, उन्हें पैर की चोट के इलाज के लिए दिल्ली लाए। एक दोस्त की सलाह पर, वीरेंद्र को ऐसे बच्चों के विशेष स्कूल में भर्ती करा दिया। साथ ही वीरेंद्र ने अपने पिता और चाचा की देखरेख में पहलवानी की ट्रेनिंग शुरू की।
नतीजा बहुत जल्दी सामने आया – पहला गोल्ड 2005 में ऑस्ट्रेलिया में डैफलम्पिक में पर ध्यान दीजिए इनमें हिस्सा लेने का 70 हज़ार रूपए का खर्चा अपनी जेब से किया। उस समय ऐसे स्पेशियली एबल्ड स्पोर्टमैन की ट्रेनिंग, किन्हीं गेम्स में हिस्सा लेने या जीतने पर किसी नकद इनाम के लिए कोई सरकारी स्कीम नहीं थी। वीरेंद्र को कई साल कुछ नहीं मिला। तब तक अन्य दूसरे एथलीट को लाखों का नकद इनाम मिलने का सिलसिला शुरू हो गया था और गोल्ड जीतने पर तो और भी बड़े बड़े इनाम।
ऐसे में खर्चा निकालने के लिए वे गाँव, देहात और कस्बों के उन ‘दंगल ‘ में हिस्सा लेने लगे जैसे आपने आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ में देखे होंगे। हर जीत पर 5 से 20 हज़ार रुपए का इनाम। बसों और ट्रेनों से हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पंजाब के दूर-दराज के गाँव – एक दंगल से दूसरे दंगल। जब नहीं जीते तो खर्चा भी वसूल नहीं हुआ।
तब भी हिम्मत नहीं हारी – 2005 (मेलबोर्न, ऑस्ट्रेलिया), 2013 (सोफिया, बुल्गारिया) और 2017 (सैमसन, तुर्की) के समर डैफलम्पिक में गोल्ड जीते और 2009 के समर डैफलम्पिक (ताइपे, चीनी ताइपे) में ब्रॉन्ज़। वर्ल्ड डैफ रेसलिंग चै
इतना सब हो गया तब सरकार ने ध्यान दिया और 2016 में प्रतिष्ठित अर्जुन अवार्ड मिला। इससे पहले राजीव गांधी स्टेट स्पोर्ट्स अवार्ड मिला था- दिल्ली सरकार ने दिया। वीरेंद्र सिंह की ये कहानी इस बात की मिसाल है कि सभी मुश्किलों के बावजूद भी हिम्मत दिखाकर खिलाड़ी क्या कर सकता है? अब भारत सरकार ने पद्म श्री से सम्मानित किया। वीरेंद्र बड़े खुश हैं और कहा – ‘बड़ी मेहनत के बाद इतना बड़ा सम्मान मिल गया। मेरी पत्नी और बेटा मेरे लिए बहुत भाग्यशाली हैं – बेटे के आते ही मेरी जिंदगी में इतनी बड़ी खुशी आई है।’ वीरेंद्र सिंह इस समय Sports Authority of India में जूनियर कोच हैं। साथ में अगली वर्ल्ड डैफ रेसलिंग चैम्पि
वीरेंद्र को पहली बार तीसरे डैफलम्पिक के लिए मदद मिली – वायदा था 6 करोड़ रूपए का लेकिन मिले सिर्फ 1.20 करोड़ रूपए जिसमें से 1.10 करोड़ उस लोन को चुकाने में चले गए जो उनके परिवार ने ट्रेनिंग और यात्रा के लिए खर्चे थे।
आज हालात बदल चुके हैं क्योंकि सरकार अन्य सक्षम खिलाड़ियों की तरह स्पेशियली एबल्ड स्पोर्टमैन को भी बराबर अधिकार और सम्मान देती है। पद्म श्री का सम्मान हासिल करने वाले वे भारत के पहले डैफ और म्यूट एथलीट।
– चरनपाल सिंह सोबती
Symbolic Feature Image-Image by Herbert Aust from Pixabay
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